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परशुराम जन्मोत्सव 10 मई : ‘भगवान परशुराम ने कुप्रथाओं का अंत किया’

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परशुराम जन्मोत्सव 10 मई : ‘भगवान परशुराम ने कुप्रथाओं का अंत किया’

लोक सेवा न्यूज़ 24 सवांददाता


10 मई 2024 //  विशेष शौर्यपथ विग्रों के आदि देव भगवान परशुराम श्री विष्णु के सभी अवतारों में अलग महत्व रखते हैं। श्री विष्णु का यही छठा अवतार ऐसा है जो सतयुग, त्रेता युग, द्वापरयुग और कलियुग में विद्यमान है। त्रेतायुग में जन्मे मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम को धनुष परश्राम जी के द्वारा ही प्रदान किया गया था। इसी धनुष के सहारे प्रभु श्री राम ने आत्तायी राक्षसों का वध किया। इतना ही नहीं भगवान प्रशुराम ने द्वापरयुग में भगवान श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र भी दिया। समय समय प्र भगवान श्री कृष्ण ने इसो सुदर्शन चक्र से राक्षसों का नाश किया। इतिहास देखा जाए तो श्री विष्णु के सभी अवतारों में भगवान परशुरान जी का अत्रतार प्रचंड एवं आवेशावतार के रूप में दर्ज निलता है ! परश्यम जी की प्रचंडता तप साधना से लेकर युद्धों में भो प्रत्यक्ष रूप से सामने आई है। वे इस पृथ्वी पर अक्षय एवं अनंत हैं। हनारे शास्त्र बताते हैं कि ने अजर अमर हैं। त्रेतायुग के आरंभ से लेकर कलियुग के अंत के उपरांत धर्म संस्थाप्ना के निमित्त भी परशयन जी हो बनेंगे। बैशाख मास की तृतीना (शुक्ल पक्ष तिथि को जन्में परशुराम जी के अवतार को अक्षय मानते हुए ही इस तिथि का नानकरण अक्षय तृतीया पड़ा। ऐसा माना जाता है कि भगवान परशुराम जी के आगे चारो नंद चलते हैं और पीछे दिव्य बाणों से भरा तूणीर है। उनके आवेशाव्तार के कारण जहां वे श्राप देने में पीछे नहीं रहते वहीं उनके द्वारा दिए गए वरदान उनकी तप शक्ति का प्रमाण हैं।

विप्र पूज्य भगवान परशुराम जी की भूनिका ब्राह्मण से लेकर क्षत्रिय और वैश्य तक शास्त्रों में उल्लेखित है। तप साधना से ब्रह्मत्व को प्राप्त कर वेद अलाएं दुनिया को प्रदान करते हुए वे ब्रह्मण के कर्तव्य में देखे जाते हैं। प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में दुष्टों का अंत करते हुए ऋषि मुनि उन्हें क्षत्रिय रूप में पाते हैं। लोक कलाओं और उनके विकास का मार्ग प्रशस्त करते हुए उन्हें वैश्य के रूप में देखा जाता है। इतना ही नहीं दासराज

युद्ध के समय घायलों की अपने हाथों से सेवा करने वाले भगवान परशुराम को सेवा वर्ण में स्थान प्रदान किया जाता है। भगवान परश्राम जी से जुड़ा एक और कथानक प्रकाश में आता है। शास्त्र बताते हैं कि भगवान भोले शंकर के अन्न्य भक्त परशुराम जी को भोले शंकर ने आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को शिष्यत्व प्रदान किया था। यही कारण है कि इस तिथि को गुरु पूर्णिमा की संज्ञा दी गई। ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि भगवान परशुराम के सात गुरु हैं। प्रथन गुरु माता रेणुका, द्वितीय गुरु पिता जमदग्नि, तृतीय गुरु महर्षि चायमान, चतुर्थ गुरु महर्षि विश्वामित्र, पंचम गुरु महर्षि अशिष्ट, षष्ठम गुरु भगवान शिव एवं सप्तम गुरु भगवान दत्तात्रेय हैं। भगवान परश्यम जी ही ऐसे अवतार हैं जो कलियुग के अंत में होने
वाले भगवान श्री नारायण के कल्कि अवतार को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा प्रदान करेंगे । भगवान परशुष्म जो का समूना जोतन संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शक्ति के रूप में जाने गए। दुष्टों का संहार और सत गुरुयों का संरक्षण ही उनके जीवन की साधना रही। यदि हम भगवान परशुराम जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानना चाहतें हैं तो जरूरी है कि उनके अन्तार की परिस्थितियों से अवगत हों। भगवान परशुयम जो के अवतार का समय अग्रजकता से भरा हुआ था। यह भी कहा जा सकता है कि वह समय जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर चल रहा था। इस बात का वर्णन ऋत्रेद से लेकर लगभग सभी पुराणों में मिलता है। सवेद के नौथे मंडल के 12 वें सूत्र में तोसरी त्रवा से यह संकेत मिलता है कि किसी त्रस卐 नामक दस्यु ने स्वयं को इंद्र एवम वरुण घोषित कर दिया था। कहा जा सकता है कि यह वह समय था जब ऋषि परंपरा का सम्मान नहीं रह गया था। ऋषि मुनियों और सत् पुरुषों की हत्याएं की जा रही थीं। आवम जलाए जा रहे थे। अनाचार अपने चरम पर था। ऋषियों मुनियों पर हो रहे इन्हीं
अत्याचारों का अंत करने के लिए

प्रभु श्री नारायण ने 卐 परशुरान 卐 के रुप में अवतार लिया। भगवान परश्राम जी ने अपने अवतार को सार्थक
करते हुए सभी कुप्रथाओं का अंत किया।

कुप्रथाओं के अंत करने में भगवान परशुराम की भूमिका से संबंधित एक प्रतीकात्मक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलत है। कथानक के अनुसार एक आयोजन में बालक 卐 शुनरीय ऊ की बलि दी जा रही थी। वह ऐसा समय था जब परशुराम जी की उम्र किशोरवय भी। वे अपने मित्र विमद और देवी लोमहार्षिनी के साथ आयोजन स्थल पर पहुंचे। उन्होंने सबसे गहले यज्ञ संगन करा रहे यज्ञाचायों से शास्त्रार्थ किया। इस पर वात नहीं बनी। तब परश्रान जी ने वरुण देव जी का आह्वान किया। व्रुण देव के प्रकट होने पर उन्होंने नरबलि के निषेध को पोषणा की। तरुण देन ने स्पष्ट किया कि बलि का देवों से कोई संबंध नहीं है। यह दैत्यों के अहंकार का प्रतीक है। भगवान वरुण की इस घोषणा से ही दुनिया को प्रार्णा मात्र में देवत्व होने का संदेश मिला। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि भगवान परशुयाम जी ने अगनने क्शिांखय उम्र से ही समज में व्याप्त कुप्रथाओं के अंत करने का बिगुल फूंक दिया था। उन्होंने ही समाज में संस्कारों का प्रस्फुटन किया ।
भगवान परशान जी को चिरंजीवी होने का वरदान उनके कठिन तप के चलते श्री नारायण भगवान विष्णु ने दिया था। उन्हें यह वरदान कल्प के अंत तक भू लोक पर तपस्यारत रहने के रूप में दिया गया है। भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं हैं, वरन ने संपूर्ण हिंदू समाज के प्रतिनिधि हैं। उनका उल्लेख भगवान श्री राम के काल से लेकर श्री कृष्ण के काल तक देखा गया है। भगवान परशुरान इस कलियुग के अंत तक नहेंद्रगिरी पर्वत पर तपस्यारत हैं। इस पर्वत को उन्होंने अपनी तपस्थली
भी श्री नारायण के आदेश के उपरांत बनाई।

    लोक सेवा न्यूज़ 24

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